नैतिकता पर कविता

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नैतिकता का पतन इसे या कह दूँ कत्ले आम हो गया।
भ्रष्टाचार फले फूले अपनाए उसका नाम हो गया॥

खाकी क्या हर एक रंग की वर्दी पलभर में बिक जाती।
लार टपकती घूँस देखकर चुप से नतमस्तक हो जाती।
कसम भूल जाता हर कोई सारे नियम ताक पर रखता।
पैसा बना मदारी जिसका इंसा आज गुलाम हो गया॥

जन सेवक जो खुद को कहते जन को भूले मन की करते।
जनता जाइ भाड़ में पहले खुद वो अपनी जेबें भरते।
सुरसा जैसा पेट बढाते जाते हैं जो कभी न भरता।
लाख करोड़ नहीं अरबों का घोटाला अब आम हो गया॥

दोष नहीं हो जिसमें कोई उसमें अगणित दोष गिनाऐं।
जो अवगुण की खान है उसकी तारीफों के पुल बन जाऐं।
झूठ बेईमानी के आगे सच सहमा और डरा खड़ा है।
अगर बोलने की कोशिश की समझो काम तमाम हो गया॥

नीचे से लेकर ऊपर तक भ्रष्ट तंत्र का जाल बिछा है।
जाति धर्म और क्षेत्रवाद का यहाँ न कोई प्रभाव दिखा है।
नोटों की हरियाली में सब मिलकर साँस चैन की लेते।
पीना और पिलाना रिश्वत सबका प्यारा जाम हो गया॥

आओ सभी देशवासी मिलकर अपना कर्तव्य निभायें।
नैतिकता की ज्योति जलाकर भ्रष्ट तंत्र की जड़े हिलाऐं।
मिलें हाथ से हाथ सभी तो कुछ भी नहीं असंभव है।
नैतिकता की जीत हुई तो समझो जन-कल्याण हो गया॥