नैतिकता पर कविता

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नैतिकता का पतन इसे या कह दूँ कत्ले आम हो गया।
भ्रष्टाचार फले फूले अपनाए उसका नाम हो गया॥

खाकी क्या हर एक रंग की वर्दी पलभर में बिक जाती।
लार टपकती घूँस देखकर चुप से नतमस्तक हो जाती।
कसम भूल जाता हर कोई सारे नियम ताक पर रखता।
पैसा बना मदारी जिसका इंसा आज गुलाम हो गया॥

जन सेवक जो खुद को कहते जन को भूले मन की करते।
जनता जाइ भाड़ में पहले खुद वो अपनी जेबें भरते।
सुरसा जैसा पेट बढाते जाते हैं जो कभी न भरता।
लाख करोड़ नहीं अरबों का घोटाला अब आम हो गया॥

दोष नहीं हो जिसमें कोई उसमें अगणित दोष गिनाऐं।
जो अवगुण की खान है उसकी तारीफों के पुल बन जाऐं।
झूठ बेईमानी के आगे सच सहमा और डरा खड़ा है।
अगर बोलने की कोशिश की समझो काम तमाम हो गया॥

नीचे से लेकर ऊपर तक भ्रष्ट तंत्र का जाल बिछा है।
जाति धर्म और क्षेत्रवाद का यहाँ न कोई प्रभाव दिखा है।
नोटों की हरियाली में सब मिलकर साँस चैन की लेते।
पीना और पिलाना रिश्वत सबका प्यारा जाम हो गया॥

आओ सभी देशवासी मिलकर अपना कर्तव्य निभायें।
नैतिकता की ज्योति जलाकर भ्रष्ट तंत्र की जड़े हिलाऐं।
मिलें हाथ से हाथ सभी तो कुछ भी नहीं असंभव है।
नैतिकता की जीत हुई तो समझो जन-कल्याण हो गया॥

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कविता सुनें : Watch the Poem मैं और मेरी जया दोनों खुशहाल एक था हमारा नटखट गोपाल चौथी में पढ़ता था उम्र नौ साल जान से प्यारा हमें अपना लाल तमन्ना थी मैं खूब पैसा कमाऊँ अपने लाडले को एक बड़ा आदमी बनाऊं उसे सारे सुख दे दूँ ऐसी थी चाहत और देर से घर लौटने की पड़ गई थी आदत मैं उसको वांछित समय न दे पाता मेरे आने से पहले वह अक्सर सो जाता कभी कभी ही रह पाते हम दोनों साथ लेशमात्र होती थीं आपस में बात एक दिन अचानक मैं जल्दी घर आया बेटे को उसदिन जगा हुआ पाया पास जाकर पूछा क्या कर रहे हो जनाब तो सवाल पर सवाल किया पापा एक बात बताएँगे आप सुबह जाते हो रात को आते हो बताओ एक दिन में कितना कमाते हो ऐसा था प्रश्न कि मैं सकपकाया खुद को असमंजस के घेरे में पाया मुझे मौन देख बोला क्यों नहीं बताते हो आप एक दिन में कितना कमाते हो मैंने उसे टालते हुए कहा ज्यादा बातें ना बनाओ तुम अभी बच्चे हो पढाई में मन लगाओ वह नहीं माना, मेरी कमीज खींचते हुए फिर बोला जल्दी बताओ जल्दी बताओ मैंने झिड़क दिया यह कहकर बहुत बोल चुके अब शांत हो जाओ देखकर मेरे तेवर, उसका अदना सा मन सहम गया मुझ

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